History of East India Company
इ. सन् 1453 में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार केंद्र कॉन्सटेन्टीनोपल को तुर्क मुस्लिमों ने जीत लिया । इससे यूरोपीय लोगों को पूर्वी देशों से मिलनेवाली चीज वस्तुओं का मिलना बंद हो गया । इन चीज-वस्तुओं में भारत का मिर्च-मसाला तथा दालचीनी, लौंग, धनिया, मिर्च का भी समावेश होता था। इसे प्राप्त करना उनके लिए अनिवार्य था । अतः उन्होंने इस बात का पता लगाना शुरू कर दिया कि भारत देश पूर्व में कहाँ पर स्थित है ।
ई.सन् 1498 में पुर्तगाल के लिस्बन बंदरगाह से निकला पुर्तगाली यात्री भारत के पश्चिम किनारे कालीकट बंदरगाह पर पहुँचा । अहमद इब्न मजीद नामक एक भारतीय खलासी की सहायता से भारत पहुँचने में सफल हुआ। समस्त यूरोप महाद्वीप के लिए यह एक क्रांतिकारी घटना थी । इस घटना की सफलता से प्रेरित होकर पुर्तगाली (पुर्तगीज, डच, फ़्राँसीसी (फ्रेंच) तथा अंग्रेजों का भारत में आने का मार्ग सरल हो गया। वे व्यापारी प्रजा की तरह आये और भारत की तत्कालीन राजनीति में हस्तक्षेप करके सत्ता प्राप्त करने के लिए संघर्ष करने लगे ।
समय बीतने पर भारत में खेले गये सत्तासंघर्ष के खेल में अंग्रेज सर्वोपरि बने । पुर्तगालियों के पास केवल दीव, दमन और गोवा ही रहे जबकि फ्रान्सीसी के पास पांडिचेरी, माहे, चन्द्रनगर, करेकल आदि रहे। जबकि फ्राँसीसी तो पराजित होकर सदा के लिए चले गये ।
ईस्ट इंडिया कंपनी :
ईस्ट इंडिया कंपनी का भारत में आगमन – History of East India Company
ई.सन् 1600 में ईस्ट इंडिया कंपनी को स्थापना हुई और दो वर्ष बाद हालैंड की डच ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना हुई; जबकि फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना तो ई.सन् 1664 में हुई । सर्व प्रथम भारत में आनेवाले पुर्तगालियों के व्यापार के एकाधिकार को डचों ने भारत के पश्चिम किनारे पर व्यापारिक कोठियाँ स्थापित करके, तोड़ डाला । ई.सन् 1612 में सर टॉमस रॉ के प्रयासों से अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी मुगल बादशाह जहाँगीर से भारत में व्यापार करने का अधिकार (परवाना) प्राप्त करने में सफल रहे और अंग्रेजों भी चार देश ने अपना प्रथम व्यापारिक केंद्र सूरत में स्थापित किया।
इसके परिणामस्वरूप हालैंड और इंग्लैंड (डच औरं अंग्रेज) जो एक दूसरे के सहयोगी मित्र थे, वे अब परस्पर दुश्मन बन गये। एक तरह से बाद में अंग्रेज और फ़्राँसीसी (फ्रेंच) (क्लाइव और डुप्ले ) भी परस्पर विरोधी बन गये । इससे सत्ता संघर्ष बहुत लम्बा चला । इस सत्ता संघर्ष पर यूरोप में चलनेवाले संघर्षो और विश्व में उपनिवेश स्थापित करने की चल रही होड़ का जबरदस्त प्रभाव पड़ा। अंग्रेजों ने लगभग 150 वर्षों से भी अधिक समय तक व्यापारी कंपनी के रूप में कार्य किया और बाद के 100 वर्ष भारत में अपना आधिपत्य स्थापित करने में तथा ब्रिटिश सरकार की ओर से नाशाह बन बेठे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शासन करने में बिताया । जैसा कि हम जानते हैं, 1857 के संग्राम के अंत में इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया ने घोषणा जारी करके भारत में से ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन को समाप्त कर दिया और भारत के शासन को सीधे अपने हाथ में ले लिया ।
आपने पिछले प्रकरण में औद्योगिक क्रांति के विषय में जाना है। वही समय ब्रिटिश शासन के उदय और विकास का समय था । यह औद्योगिक क्रांति का तात्कालिक परिणाम था । यूरोप के देशों के कारखानों में तैयार माल की बिक्री करने के लिए बाज़ार की प्राप्ति और उन्हीं संस्थानों में से कच्चे माल प्राप्त करना ।
ईस्ट इंडिया कंपनी शासन का भारत पर आर्थिक और सामाजिक प्रभाव
ई. सन् 1757 में बंगाल में पैर पसारने के बाद ई. सन् 1857 के विप्लव तक के 100 वर्ष के शासनकाल के दौरान ब्रिटिश शासकों ने भारत पर अपना आधिपत्य जमा दिया था। प्रारंभ में कंपनी के व्यापारी अधिकारी ही प्रशासन व्यवस्था संभालते थे। उनका मुख्य कार्य महसूल वसूल करना था । परंतु बक्सर के युद्ध के बाद उनका यह कार्य कंपनी ने स्वयं ले लिया । ब्रिटिश शासकों को बंगाल, बिहार और उड़ीसा का दीवानी अधिकार मिला । द्विमुखी शासन पद्धति लागू हुई । बंगाल में सर्वप्रथम दोमुँही शासन का आरंभ हुआ। जिसमें, महसूल वसूल करने का अधिकार अंग्रेजों के पास था जबकि जनहित कार्यों को करने का जिसका प्रभाव भारत पर भी पड़ा। भारत में पक्की उत्तरदायित्व नवाब के पास था। अंग्रेजों के पास बिना उत्तरदायित्व की सत्ता आई । जबकि नवाब के पास बिना सत्ता का उत्तरदायित्व ।
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