भारत के विज्ञान क्षेत्र की विरासत – Heritage of India’s Science Sector

Heritage of  India’s Science Sector

भारत के बारे में पश्चिमी देशों के द्वारा ऐसी आलोचना की जाती थी कि वह केवल धर्म और तत्वचिंतन में ही डूबा हुआ देश है। उसके पास आध्यात्मिक और रूढ़िगत दृष्टिकोण है। परंतु वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं है। लेकिन आधुनिक संसाधनों के पश्चात यह सिद्ध हो गया कि भारत के पास भी गणितशास्त्र, खगोल शास्त्र, वैदिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, वास्तुशास्त्र इत्यादि का ज्ञान है।

धातु विद्या

भारत के विज्ञान क्षेत्र की विरासत - Heritage of India's Science Sector
नटराज की प्रतिमा (मूर्ति)

प्राचीन भारत ने धातुविद्या में अकल्पनीय (महत्वपूर्ण) प्रगति की थी। हड़प्पा संस्कृति में से धातु की नृत्यांगना की मूर्ति (प्रतिमा) प्रतिमाएँ तक्षशिला में से प्राप्त हुई है। धातुशिल्प बनाने की परंपरा दसवीं ग्यारहवीं सदी से विशेष प्रचार में आयी। दक्षिण भारत में चोल राजाओं के समय के दौरान अधिक मात्रा में धातुशिल्प तैयार होती थी। नटराज की मूर्ति शिल्पकला की दृष्टि से अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है। चैन्नई के संग्रहालय में सुरक्षित यह शिल्यानादन्त-नृत्यकला का उत्कृष्ट रूप है।

अन्य उल्लेखनीय धातु प्रतिमाओं में धनुधारी राम की शिल्प चैन्नई के संग्रहालय में सुरक्षित है। धातुशिल्पों में देवी-देवताओं के बाद पशु-पक्षीओं और कलात्मक देवताओं तथा सुपारी काटने की विविध प्रकार की सरौतियां भी महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं।

रसायन विद्या

लोह स्तम्भ – दिल्ली

भौतिकशास्त्र के साथ ही भारत में रसायन विद्या का भी विकास हुआ था। नालंदा विद्यापीठ के- बौद्ध आचार्य नागार्जुन ने वनस्पति औषधियों के साथ रसायन औषधियों के उपयोग का सुझाव दिया था। ऐसा माना जाता है कि पारे की भसम करके औषधि के रूप में उपयेग करने की परम्परा उसने ही शुरु की थी। जबकि सातवी सदी (शताब्दि) में तो लोह और सोमल भी औषधि के रुप में उपयोग किए जाते थे। नालंदा विद्यापीठ ने रसायनविद्या के अभ्यास और संशोधन के लिए स्वयं की रसायनशाला और भट्टियां रखी थीं।

इसके उपरान्त रसायनविद्या की पराकाष्टा तो धातु में से बनायी हुयी बुद्ध की प्रतिमाओं में दिखाई देती है। बिहार के भागलपुर जिले की सुल्तान गंज मे से मिली हुई बुद्ध की ताम्रमूर्ति 7½ फुट ऊंची है।उसका वजन एक टन है। जबकि नालंदा में से मिली हुई बुद्ध की मूर्ति तो 18 फुट ऊँची है। और इससे भी अधिक आश्चर्यजनक उदाहरण तो सात टन वजन का लोहस्तंभ है। सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) द्वारा खड़ा किया हुआ विजयस्तंभ लगभग 24 फुट ऊँचा है। इतने समय तक बरसात, धूप या छांव में रहने के पश्चात भी | लोह स्तंभ पर जंग नहीं लगी है।

गणितशास्त्र

गणितशास्त्री – आर्यभट्ट

गणित को प्राचीन भारत का महत्वपूर्ण शास्त्र माना जाता है। गणित के क्षेत्र में प्राचीन भारत में कई शंकास्पद खोज हुयी थी। इन खोजों में गुप्तयुग के विद्वान आर्यभट्ट का मुख्य योगदान होने के कारण इन्हें ‘गणितशात्र के पिता’ के रुप पहचाना जाता है। आर्यभट्ट के ग्रंथ ‘आर्यभट्टीयम्’ में शून्य की संज्ञा की, दशांश पद्धती की ऋण के चिन्ह की तथा बीजगणित में अज्ञानत संख्या को दर्शाने के लिए मूल अक्षर के उपयोगों की खोज अधिक उल्लेखनीय है। भारत ने गणितशास्त्र में सूत्र और दशांश पद्धति की जिस खोज को किया है उसके कारण विश्व के गणितशाला में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ था। इसके कारण अंकगणित और बीजगणित की दिशा में तीव्र प्रगति हुयी। इसके पश्चात अपूर्णाकों तथा पूर्णाकों के गुणनफल तथा भागफल की पद्धतियों की खोज हुयी। त्रिराशि की विधि खोजकर उसको पूर्ण बनाया गया। वर्ग तथा वर्गमूल, घन, तथा घनमूल त्रिकोणमिति के अनुपातों का कोष्टक इत्यादि की खोज हुयी । pi की कीमत 3.14 मानी जाती है। सरल वर्गीय समीकरणों के हल की विधि की खोज हुयी ।

भारत के विज्ञान क्षेत्र की विरासत

अन्य विज्ञान

खगोलशात्र और ज्योतिषशास्त्र

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शास्त्रों के अन्दर खगोलशास्त्र सबसे प्राचीन है। प्राचीन विद्यापीठों में इसका व्यवस्थित अभ्यास किया जाता था। ग्रहों और उनकी गति, नक्षत्रों तथा अन्य आकाशीय पदार्थो इत्यादी के द्वारा गणना करके खगोल और ज्योतिषशास्त्र का बहुत विकास हुआ था । मुख्यतः ग्रहों के फल द्वारा ज्योतिष फलित किया जाता था।

गुप्तयुग के महान खगोलशास्त्री आर्यभट्ट ने यह सिद्ध किया था कि पृथ्वी अपनी स्वयं की धरी पर भ्रमण करती है तथा चन्द्रग्रहण का वास्तविक कारण पृथ्वी की परिछाई है। इसी प्रकार ब्रह्मगुप्त ने ‘ब्रह्मसिद्धांत’ की रचना द्वारा गुरुत्वाकर्षण के नियमों से प्रचलित किया था।

वराहमिहिर (ई.स. 505-587) नामक महान खगोलशास्त्री

आर्यभट्ट के पश्चात वराहमिहिर (ई.स. 505-587) नामक महान खगोलशास्त्री तथा ज्योतिषशास्त्री हो गए। उन्होंने ज्योतिषशास्त्र को ‘तंत्र’, ‘होरा’ और संहिता लिखा हुआ “बुद्धसंहिता’ में आकाशीय ग्रहों और मानव के भविष्य पर उसकी असर किस प्रकार मनुष्य के लक्षणों, प्राणियों के अलग-अलग वर्गं लग्न समय, तालाब, कुएँ, बगीचे, खेतों में जुताई इत्यादि प्रसंगो के मुहुर्तों की जानकारियों का भंडार है। हमको यह जानकर प्रसन्नता होती है कि भारतीय ज्ञानप्राप्ति के विषय में स्वयं के मन के द्वार हमेशा खुले रखते हैं।

वास्तुशास्त्र

वास्तुशास्त्र

वास्तुशास्त्र ज्योतिषशास्त्र का विख्यात अंग है। भारत के वास्तुशास्त्र की गणना महत्ता और प्रशंसा विकसित देशों में भी स्वीकृत रही है। ब्रह्म, नारद, बृहस्पति, भृगु, वशिष्ट, विश्वकर्मा, प्राचीन वास्तुशाला के प्रेणेता, आर्षदृष्टा और प्रचारक के हम सभी ऋणी है । उन्होंने रहने का स्थान, मंदिर, प्रासाद, अश्वशाला, किला, शस्त्रागार, नगर इत्यादि का निर्माण (रचना) किस प्रकार से करना, किस दिशा में करना आदि के सिद्धांतों की जानकारियों को प्रदान किया है। बृहद संहिता में वास्तुशास्त्र का उल्लेख है। पंदरहवीं सदी में मेवाड़ के राजा कुंभ ने पूर्व प्रकाशनों में सुधार करवा के इन शस्त्रों का पुनरुद्धार किया था।

पौराणिक परंपरा के अनुसार देवों के प्रथम इंजिनियर (आर्किटेक) विश्वकर्मा थे। उन्होंने वास्तुशास्त्र को आठमार्ग में विभाजित किया था। जिस पर हम सभी भारतीय प्राचीन वास्तुशास्त्र के लिए गर्व अनुभव कर सकते हैं। जगह (स्थान) की पसंदगी विविध आकार, रचना, आकार, कद, जगह के अंदर की व्यवस्था देवमंदिर ब्रह्मस्थान, भोजन कक्ष, शयनखंड दैनिक कार्य के स्थानों के लिए श्लोकों द्वारा अनेक प्राप्य- अप्राप्यग्रंथो में वास्तुशास्त्र का ज्ञान उपलब्ध है भारत का प्राचीन ज्ञान जब विदेशों में से भारत में वापस आया है तब हम फिर से इन शास्त्र की जानकारी प्राप्त करने के लिए जागृत हो गये हैं। सारनाथ का स्तंभ (128 फूट ऊँचा)वास्तुकला का उत्तम नमूना है। वास्तुशास्त्र के सिद्धांतों और जानकारी में समय के बदलाव के साथ उल्लेखनीय परिवर्तन आ रहा है। पूर्व वास्तुशास्त्र को धर्म के नाम के द्वारा समझा जाता था। अब इसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझा जाता है।

 

 

 

 

 

 

 

 

भारत के सांस्कृतिक विरासत के 6 स्थल – 6 Sites of Cultural Heritage of India

6 Sites of Cultural Heritage of India

 

 

 

 

 

 

 

 

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