समुद्र मंथन भारतवर्ष की एक प्राचीन घटना है जिसका उल्लेख महाभारत पुराण में भी मिलता है। समुद्र मंथन से चौदह रत्नों की प्राप्ति हुई। उसमे से आठवाँ रत्नदेवी लक्ष्मी के रूप में प्रकट हुआ। उन्होंने भगवान विष्णु को अपना पति स्वीकार किया था। आइये जानते है समुन्द्र मंथन से प्रकट माता लक्ष्मी की कथा।
समुन्द्र मंथन से प्रकट माता लक्ष्मी का रहस्य – Secret of Goddess Lakshmi
एक बार भगवान शंकर के अंशभूत महर्षि दुर्वासा पृथ्वी पर विचर रहे थे। घूमत-घूमते वे एक मनोहर वन में गए। वहाँ एक विद्याधर सुंदरी हाथ में पारिजात पुष्पों की माला लिए खड़ी थी, वह माला दिव्य पुष्पों की बनी थी। उसकी दिव्य गंध से समस्त वन प्रांत सुवासित हो रहा था। दुर्वासा ने विद्याधरी से वह मनोहर माला माँगी। विद्याधरी ने उन्हें आदरपूर्वक प्रणाम करके वह माला दे दी। माला लेकर उन्मत्त वेषधारी मुनि ने अपने मस्तक पर डाल ली और पुनः पृथ्वी पर भ्रमण करने लगे।
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महर्षि दुर्वासा हुए क्रोधित –
इसी समय मुनि को देवराज इंद्र दिखाई दिए, जो मतवाले ऐरावत पर चढ़कर आ रहे थे। उनके साथ बहुत-से देवता भी थे। मुनि ने अपने मस्तक पर पड़ी माला उतार कर हाथ में ले ली। उसके ऊपर भौरे गुंजार कर रहे थे। जब देवराज समीप आए तो दुर्वासा ने पागलों की तरह वह माला उनके ऊपर फेंक दी। देवराज ने उसे ऐरावत के मस्तक पर डाल दिया। ऐरावत ने उसकी तीव्र गंध से आकर्षित हो सूँड से माला उतार ली और सूँघकर पृथ्वी पर फेंक दी।
यह देख दुर्वासा क्रोध से जल उठे और देवराज इंद्र से बोले, ऐश्वर्य के घमंड से तेरा ह्रदय दूषित हो गया है। तभी तो मेरी दी हुई माला का तूने आदर नहीं किया है। वह माला नहीं, श्री लक्ष्मी जी का धाम थी। माला लेकर तूने प्रणाम तक नहीं किया। इसलिए तेरे अधिकार में स्थित तीनों लोकों की लक्ष्मी शीघ्र ही अदृश्य हो जाएगी।
यह शाप सुनकर देवराज इंद्र घबरा गए और तुरंत ही ऐरावत से उतर कर मुनि के चरणों में पड़ गए। उन्होंने दुर्वासा को प्रसन्न करने की लाख चेष्टाएँ कीं, किंतु महर्षि टस से मस न हुए। उल्टे इंद्र को फटकार कर वहाँ से चल दिए। इंद्र भी ऐरावत पर सवार हो अमरावती को लौट गए। तबसे तीनों लोकों की लक्ष्मी नष्ट हो गई। इस प्रकार त्रिलोकी के श्रीहीन एवं सत्वरहित हो जाने पर दानवों ने देवताओं पर चढ़ाई कर दी।
भगवान विष्णु की सलाह –
देवताओं में अब उत्साह कहाँ रह गया था? सबने हार मान ली। फिर सभी देवता ब्रह्माजी की शरण में गए। ब्रह्माजी ने उन्हें भगवान विष्णु की शरण में जाने की सलाह दी तथा सबके साथ वे स्वयं भी क्षीरसागर के उत्तर तट पर गए। वहाँ पहुँच कर ब्रह्मा आदि देवताओं ने बड़ी भक्ति से भगवान विष्णु का स्तवन किया। भगवान प्रसन्न होकर देवताओं के सम्मुख प्रकट हुए।
उनका अनुपम तेजस्वी मंगलमय विग्रह देखकर देवताओं ने पुनः स्तवन किया, तत्पश्चात भगवान ने उन्हें क्षीरसागर को मथने की सलाह दी और कहा, “इससे अमृत प्रकट होगा। उसके पान करने से तुम सब लोग अजर-अमर हो जाओगे, किंतु यह कार्य है बहुत दुष्कर अतः तुम्हें दैत्यों को भी अपना साथी बना लेना चाहिए। मैं तो तुम्हारी सहायता करूँगा ही।”
भगवान की आज्ञा पाकर देवगण दैत्यों से संधि करके अमृत-प्राप्ति के लिए प्रयास करने लगे। वे भाँति-भाँति औषधियाँ लाएँ और उन्हें क्षीरसागर में छोड़ दिया, फिर मंदराचल पर्वत को मथानी और वासुकि नागराज को नेती (रस्सी) बनाकर बड़े वेग से समुद्र मंथन का कार्य आरंभ किया। भगवान ने वासुकि की पूँछ की ओर देवताओं को और मुख की ओर दैत्यों को लगाया।
मंथन करते समय वासुकि की निःश्वासाग्नि से झुलसकर सभी दैत्य निस्तेज हो गए और उसी निःश्वास वायु से विक्षिप्त होकर बादल वासुकि की पूँछ की ओर बरसते थे, जिससे देवताओं की शक्ति बढ़ती गई । भक्त वत्सल भगवान विष्णु स्वयं कच्छप रूप धारण कर क्षीरसागर में घूमते हुए मंदराचल के आधार बने हुए थे । वे ही एक रूप से देवताओं में और एक रूप से दैत्यों में मिलकर नागराज को खींचने में भी सहायता देते थे तथा एक अन्य विशाल रूप से, जो देवताओं और दैत्यों को दिखाई नहीं देता था, उन्होंने मंदराचल को ऊपर से दबा रखा था। इसके साथ ही वे नागराज वासुकि में भी बल का संचार करते थे और देवताओं की भी शक्ति बढ़ा रहे थे।
माता लक्ष्मी की कथा –
इस प्रकार मंथन करने पर क्षीरसागर से कामधेनु, वारुणी देवी, कल्पवृक्ष, और अप्सराएँ प्रकट हुईं। चंद्रमा निकले, जिन्हें महादेव जी ने मस्तक पर धारण किया। क्षीर समुद्र से भगवती लक्ष्मी देवी प्रकट हुईं। वे खिले हुए कमल के आसन पर विराजमान थीं। उनके अंगों की दिव्य कांति सब ओर प्रकाशित हो रही थी। उनके हाथ में कमल शोभा पा रहा था। उनका दर्शन कर देवता और महर्षिगण प्रसन्न हो गए।
उन्होंने वैदिक श्रीसूक्त का पाठ करके लक्ष्मी देवी का स्तवन करके दिव्य वस्त्राभूषण अर्पित किए। वे उन दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित होकर सबके देखते-देखते अपने सनातन स्वामी श्रीविष्णु भगवान के वक्षस्थल में चली गई। भगवान को लक्ष्मी जी के साथ देखकर देवता प्रसन्न हो गए। बड़ी विनय और भक्ति के साथ श्रीलक्ष्मी जी ने देवताओं को मनोवांछित वरदान दिया।
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