Bharat Natyam Dance
भरत नाट्यम में जीवन के तीन मूल तत्व – दर्शन शास्त्र, धर्म व विज्ञान हैं। यह एक गतिशील व सांसारिक नृत्य शैली है, तथा इसकी प्राचीनता स्वयं सिद्ध है। इसे सौंदर्य व सुरुचि संपन्नता का प्रतीक बताया जाना पूर्णत: संगत है। वस्तुत: यह एक ऐसी परंपरा है, जिसमें पूर्ण समर्पण, सांसारिक बंधनों से विरक्ति तथा निष्पादनकर्ता का इसमें चरमोत्कर्ष पर होना आवश्यक है। भरत नाट्यम तुलनात्मक रूप से नया नाम है। पहले इसे सादिर, दासी अट्टम और तन्जावूरनाट्यम के नामों से जाना जाता था।
भरत नाट्यम नृत्य शैली – Bharat Natyam Dance
भरतनाट्यम की उत्पत्ति।
भरतनाट्यम् नृत्य 2000 साल से व्यवहार में है । भरतमूनि के नाट्यशास्त्र (200 ईसा पूर्व से 200 ईसवी सन्) के साथ प्रारम्भ हुए अनेक ग्रंथों (पुस्तकों) से इस नृत्य रूप पर जानकारी प्राप्त होती है । नंदिकेश्वर द्वारा रचित अभिनय दर्पण भरतनाट्यम् नृत्य में, शरीर की गेतिविधि के व्याकरण और तकनीकी अध्ययन के लिए ग्रंथीय (पुस्तकीय) सामग्री का एक प्रमुख स्रोत है । यहां प्राचीन काल की धातु और पत्थर की प्रतिमाओं तथा चित्रों में इस नृत्य रूप के विस्तूत व्यवहार के दर्शनीय प्रमाण भी मिलते हैं । चिदम्बरम् मंदिर के गोपुरमों पर भरतनाट्यम् नृत्य की भंगिमाओं की एक श्रृंखला और मूर्तिकार द्वारा पत्थर को काट कर बनाई गई प्रतिमाएं देखी जा सकती है । अनके मंदिरों में मूर्तिकला में नृत्य के चारी और कर्णा को प्रस्तुत किया गया है और इनसे इस नृतय का अध्ययन किया जा सकता है।
भरतनाट्यम या सधीर अट्टम मुख्य रूप से दक्षिण भारत की शास्त्रीय नृत्य शैली है। इस नृत्य कला में भावम से “भ” रागम से “र”तालम से “त” लिया गया है। इसलिए भरतनाट्यम यह नाम अस्तित्व में आया है।तमिलनाडु का तांजोर जिला ‘भरतनाटयम्’ नृत्यशैली का उद्भव स्थान माना जाता है। भरतमुनि रचित नाटयशास्त्र और नंदीकेश्वर रचित अभिनव दर्पण ये दोनों ग्रन्थ भरतनाटयम् के आधारस्तंभ हैं। यह भरतमुनि के नाट्य शास्त्र पर आधारित है।
भरतनाट्यम का विकास।
भारतीय नृत्य शैलियों को शास्त्रीय नृत्य और लोकनृत्य नामक दो श्रेणियों में सामान्यत: वर्गीकृत किया जा सकता है। इनमें से अधिकांश नृत्य शैलियों का, चाहे वे शास्त्रीय हों या लोक हों, धर्म से सीधा संबंध रहा है। ये नृत्य प्रायः नृत्य देवता के प्रति भक्ति व्यक्त करने के रूप में प्रस्तुत किए जाते थे।
चेन्नई के ई कृष्ण अय्यर भरतनाट्यम के विकास के लिए सबसे प्रमुख योगदानकर्ताओं में से एक थे। उन्होंने 1927 में मद्रास में प्रथम अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन का आयोजन किया। सम्मेलन के परिणामस्वरूप, 1928 में संगीत अकादमी की स्थापना हुई थी। उन्होंने लगभग एक दशक तक अकादमी के सचिव के रूप में कार्य किया।
वर्तमान समय में इस नृत्य शैली का मुख्य रूप से महिलाओं द्वारा अभ्यास किया जाता है। इस नृत्य शैली के प्रेरणास्त्रोत चिदंबरम की प्राचीन मंदिर की मूर्तियों से आते हैं। देवदासियो द्वारा इस शैली को जीवित रखा गया । देवदासी वास्तव में वे युवतियां होती थीं, जो अपने माता-पिता द्वारा मंदिर को दान में दे दी जाती थी और उनका विवाह देवताओं से होता था । देवदासियां मंदिर के प्रांगण में, देवताओं को अर्पण के रूप में संगीत व नृत्य प्रस्तुत करती थीं । इस सदी के कुछ प्रसिद्ध गुरुओं और अनुपालकों (नर्तक व नर्तकियों) का संबंध देवदासी परिवारों से है, जिनमें बाला सरस्वती एक बहुत परिचित नाम है।
भरतनाट्यम् में शारीरिक प्रक्रिया को तीन भागों में बांटा जाता है
आलारिपु – इस अंश में कविता(सोल्लू कुट्टू ) रहती है। इसी की छंद में आवृति होती है। तिश्र या मिश्र छंद तथा करताल और मृदंग के साथ यह अंश अनुष्ठित होता है, इसे इस नृत्यानुष्ठान कि भूमिका कहा जाता है।
जातीस्वरम – यह अंश कला ज्ञान का परिचय देने का होता है इसमें नर्तक अपने कला ज्ञान का परिचय देते हैं। इस अंश में स्वर मालिका के साथ राग रूप प्रदर्शित होता होता है जो कि उच्च कला कि मांग करता है।
शब्दम – ये तीसरे नम्बर का अंश होता है। सभी अंशों में यह अंश सबसे आकर्षक अंश होता है। शब्दम में नाट्यभावों का वर्णन किया जाता है। इसके लिए बहुविचित्र तथा लावण्यमय नृत्य पेश करेक नाट्यभावों का वर्णन किया जाता है।
वर्णम – इस अंश में नृत्य कला के अलग अलग वर्णों को प्रस्तुत किया जाता है। वर्णम में भाव, ताल और राग तीनों कि प्रस्तुति होती है। भरतनाट्यम् के सभी अंशों में यह अंश भरतनाट्यम् का सबसे चुनौती पूर्ण अंश होता है।
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