इन्द्रप्रस्थ की स्थापना कैसे हुई – Specialty of Indraprastha

हम सभी जानते है पांडव और पांचाली हस्तिनापुर से प्रस्थान करके दूसरे नगर में बस गए थे। तो क्या आप जानते है उस जगह के बारे में कि वह कैसा नगर था दिखने में कैसा था , उस नगर की क्या विशेषता है। ये सभी जानकारी आज हम इस आर्टिकल में देते है कि इन्द्रप्रस्थ की स्थापना कैसे हुई?

इन्द्रप्रस्थ की स्थापना कैसे हुई – Establishment of Indraprastha

 

 इन्द्रप्रस्थ की स्थापना कैसे हुई - Specialty of Indraprastha
Specialty of Indraprastha

धृतराष्ट्र ने शकुनि के कहने पर दुर्योधन को युवराज बना दिया। द्रौपदी स्वयंवर के तत्पश्चात दुर्योधन आदि को पाण्ड्वो के जीवित होने का पता चला पाण्ड्वो ने कौरवों से अपना राज्य मांगा परन्तु गृहयुद्ध के संकट से बचने के लिए युधिष्ठर ने कौरवों द्वारा दिए खण्डहर स्वरुप खाण्डववन आधे राज्य के रुप मे प्राप्त किया।

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पांडवों की पांचाल राजा द्रुपद की पुत्री द्रौपदी से विवाह उपरांत मित्रता के बाद वे काफ़ी शक्तिशाली हो गए थे। तब हस्तिनापुर के महाराज धृष्टराष्ट्र ने उन्हें राज्य में बुलाया। धृष्टराष्ट्र ने युधिष्ठिर को संबोधित करते हुए कहा, हे कुंती पुत्र अपने भ्राताओं के संग जो मैं कहता सुनो। तुम खांडवप्रस्थ के वन को हटा कर अपने लिए एक शहर का निर्माण करो, जिससे कि तुममें और मेरे पुत्रों में कोई अंतर ना रहे। यदि तुम अपने स्थान रहोगे, तो तुमको कोई भी क्षति नहीं पहुंचा पाएगा।

पार्थ द्वारा रक्षित तुम खांडवप्रस्थ में निवास करो, और आधा राज्य भोगो। धृतराष्ट्र के कथनानुसार, पांडवों ने हस्तिनापुर से प्रस्थान किया। आधे राज्य के आश्वासन के साथ उन्होंने खांडवप्रस्थ के वनों को हटा दिया।

इंद्रप्रस्थ का वास्तुकला – Architecture of Indraprastha

Specialty of Indraprastha

उसके उपरांत पांडवों ने श्रीकृष्ण के साथ मय दानव की सहायता से उस शहर का सौन्दर्यीकरण किया। वह शहर एक द्वितीय स्वर्ग के समान हो गया। उसके बाद सभी महारथियों व राज्यों के प्रतिनिधियों की उपस्थिति में वहां श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास के सान्निध्य में एक महान यज्ञ और गृहप्रवेश अनुष्ठान का आयोजन हुआ। उसके बाद, सागर जैसी चौड़ी खाई से घिरा, स्वर्ग गगनचुम्बी चहारदीवारी से घिरा व चंद्रमा या सूखे मेघों जैसा श्वेत वह नगर नागों की राजधानी, भोगवती नगर जैसा लगने लगा।

इसमें अनगिनत प्रासाद, असंख्य द्वार थे, जो प्रत्येक द्वार गरुड़ के विशाल फ़ैले पंखों की तरह खुले थे। इस शहर की रक्षा दीवार में मंदराचल पर्वत जैसे विशाल द्वार थे। इस शस्त्रों से सुसज्जित, सुरक्षित नगरी को दुश्मनों का एक बाण भी खरौंच तक नहीं सकता था। उसकी दीवारों पर तोपें और शतघ्नियां रखीं थीं, जैसे दुमुंही सांप होते हैं। बुर्जियों पर सशस्त्र सेना के सैनिक लगे थे। उन दीवारों पर वृहत लौह चक्र भी लगे थे।

यहां की सडकें चौड़ी और साफ थीं। उन पर दुर्घटना का कोई भय नहीं था। भव्य महलों, अट्टालिकाओं और प्रासादों से सुसज्जित यह नगरी इंद्र की अमरावती से मुकाबला करती थीं।

इंद्रप्रस्थ की विशेषता –  Specialty of Indraprastha

Specialty of Indraprastha

इस कारण ही इसे इंद्रप्रस्थ नाम दिया गया था। इस शहर के सर्वश्रेष्ठ भाग में पांडवों का महल स्थित था। इसमें कुबेर के समान खजाना और भंडार थे। इतने वैभव से परिपूर्ण इसको देखकर दामिनी के समान आंखें चौधिया जाती थीं। जब शहर बसा, तो वहां बड़ी संख्या में ब्राह्मण आए, जिनके पास सभी वेद-शास्त्र इत्यादि थे, व सभी भाषाओं में पारंगत थे। यहां सभी दिशाओं से बहुत से व्यापारीगण पधारे। उन्हें यहां व्यापार कर दून संपत्ति मिलने की आशाएं थीं। बहुत से कारीगर वर्ग के लोग भी यहां आ कर बस गए।

इस शहर को घेरे हुए, कई सुंदर उद्यान थे, जिनमें असंख्य प्रजातियों के फल और फूल इत्यादि लगे थे। इनमें आम्र, अमरतक, कदंब अशोक, चंपक, पुन्नग, नाग, लकुचा, पनास, सालस और तालस के वृक्ष थे। तमाल, वकुल और केतकी के महकते पेड़ थे। सुंदर और पुष्पित अमलक, जिनकी शाखाएं फलों से लदी होने के कारण झुकी रहती थीं। लोध्र और सुंदर अंकोल वृक्ष भी थे। जम्बू, पाल, कुंजक, अतिमुक्ता, करविरस, पारिजात और ढ़ेरों अन्य प्रकार के पेड़ पौधे लगे थे। अनेकों हरे भरे कुञ्ज यहां मयूर और कोकिल ध्वनियों से गूंजते रहते थे। कई विलासगृह थे, जो कि शीशे जैसे चमकदार थे, और लताओं से ढंके थे। यहां कई कृत्रिम टीले थे, और जल से ऊपर तक भरे सरोवर और झीलें, कमल तड़ाग जिनमें हंस और बत्तखें, चक्रवाक इत्यादि किल्लोल करते रहते थे। यहां कई सरोवरों में बहुत से जलीय पौधों की भी भरमार थी।

यहां रहकर, शहर को भोगकर, पांडवों की खुशी दिनोंदिन बढ़ती गई थी। भीष्म पितामह और धृतराष्ट्र के अपने प्रति दर्शित नैतिक व्यवहार के परिणामस्वरूप पांडवों ने खांडवप्रस्थ को इंद्रप्रस्थ में परिवर्तित कर दिया | पाण्डुकुमार अर्जुन ने श्रीकृष्ण के साथ खाण्डववन को जला दिया और इन्द्र के द्वारा की हुई वृष्टि का अपने बाणों के (छत्राकार) बाँध से निवारण करते हुए अग्नि को तृप्त किया। वहा अर्जुन और कृष्ण समस्त देवताओ को युद्ध मे परास्त कर दिया।

अर्जुन को गाण्डीव धनुष – Gandiva bows to Arjuna

Specialty of Indraprastha

इसके फलस्वरुप अर्जुन ने अग्निदेव से दिव्य गाण्डीव धनुष और उत्तम रथ प्राप्त किया और कृष्ण जी ने सुदर्शन चक्र प्राप्त किया था। उन्हें युद्ध में भगवान् कृष्ण-जैसे सारथि मिले थे तथा उन्होंने आचार्य द्रोण से ब्रह्मास्त्र आदि दिव्य आयुध और कभी नष्ट न होने वाले बाण प्राप्त किये थे इन्द्र अप्ने पुत्र अर्जुन की वीरता देखकर अतिप्रसन्न हुए । इन्द्र के कहने पर देव शिल्पि विश्वकर्मा और मय दानव ने मिलकर खाण्डववन को इन्द्रपुरी जितने भव्य नगर मे निर्मित कर दिया, जिसे इन्द्रप्रस्थ नाम दिया गया।

 

 

 

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